Sunday, March 8, 2009

On my Raipur Trip

उन गलियों से गुज़रा तो बशर याद आई,
हुई जो शब् तो गुजिश्ता सी सेहर याद आई,

कभी वो चाय की चुस्की कभी वो छांछ की ठंडक,
कैसे गुज़रा था वो हर एक पहर याद आई,

वो बेख़याली बेखुदी बेफ़िक्री और ग़फ़लत,
वो बदगुमान सी खाली दोपहर याद आई,

वो पहचानी सी बस्ती और आशना सी वो सड़कें,
वो मेरे रोज़ के रस्ते वो डगर याद आई,

के हर इक चीज़ से वाबस्ता कोई इक कहानी थी,
गया जिस सिम्त कोई एक उधर याद आई,

मैं खोजा किया भीड़ में पहचाने से चेहरे,
दीखता था कोई एक जिधर याद आई,

वो मेरे रोज़ के अड्डे जहाँ महफिल सी जमती थी,
वो सूने दिख रहे थे सब के मगर याद आई,

मेरा माज़ी जो इस शहर में कुछ घुल सा गया है,
वो शब्-ओ-रोज़ जिनकी शाम-ओ-सहर याद आई,

के देखें कब तलक चलता है यादों का ये सिलसिला,
किये जायेंगे जब तब याद अगर याद आई,

2 comments:

ExpCG said...

wah ustad..
Maza aa gaya..sala padhte padhte sab purana dimag mein ghumne laga.

Bhavani said...

sir senti mat karo yaar..