Wednesday, September 19, 2007

आयेगी वो मंज़िल...

बैठा हूँ जंग से अभी थक हार के गोया,
ताज़े नीशान हैं अभी तलवार के गोया,

हूँ पस्त मगर पसलियों में अब भी ज़ोर है,
दुश्मन है कुछ यूँ ढीठ कि कहता है और है,

अब जिन्दगी ही जंग सी कुछ बन के रह गई,
लाखों थपेडे वक़्त की करवट के सह गई,

लेकिन हर एक मोड़ पे आया बहोत मज़ा,
दूजे भले कहते रहें कैसी थी ये सज़ा,

हर शै को ज़माने की इतने पास से देखा,
अब क्या कहें कुछ अपने ही अदाज़ से देखा,

दरया-ऐ-इश्क की कभी रफ़्तार देख ली,
नश्तर सी पैनी नज़र की वो धार देख ली,

देखी हद-ऐ-हवस की जो जलवे में आया जिस्म,
गरमी से जिस्म की कभी जो कपकपाया जिस्म,

देखी है दोस्तों की दोस्ती की वो शिद्दत,
की फासले भी कर न सके कम वो मोहब्बत,

कुछ गम यूँ आए जैसे बर्क़ आसमान में,
रहते हैं वो भी दिल के पुराने मकान में,

दुःख सुख तड़प मजबूरी और दर्द-ऐ-जुदाई,
हसरत निशात यास मस्ती और तनहाई,

कैफीयतें ये सारी कभी चख चुका हूँ मैं,
हर रास्ते पर पाँव कभी रख चुका हूँ मैं,

जो रास्ता मेरा है अब तलक नही मिला,
कुछ भी निशाँ-ऐ-मंज़िल-ओ-फलक नही मिला,

बस आस में मंज़िल की चला जा रहा हूँ मैं,
सब संग-ऐ-राह राह से हटा रहा हूँ मैं,

रह रह के मेरे कान में कहता है मेरा दिल,
मत हार हमनफस की आयेगी वो मंज़िल.

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